ब्रह्मास्त्र – महण्णे माफ करना, गलती म्हारे से हो गयी!

अपनी गाढ़ी कमाई का पैसा खर्च करके मैं अब कभी विष्ठावुड फिल्में देखने थियेटर नहीं जाता, पर कल एक वामी-कामी के सौजन्य से जाना पड़ गया । जानता हूँ कि विभिन्न कारणों से ब्रह्मास्त्र को बॉयकॉट करने की मुहिम चल रही है, और मैं उससे पूर्णतया सहमत भी हूँ, पर वामपंथी चिरकुट ऐसा पीछे पड़ा कि मैं पिंड छुड़ा नहीं पाया। बोला, मैं दिखाऊँगा, तब तो देखेंगे।

मेरे दिमाग में कौंधा कि ये चीकट, मुर्दाचूस अगर खर्चा कर रहा है, तो इसका बजट आया होगा, पता लगाना चाहिए। मुझे नहीं तो किसी और को दिखाएगा, और फिल्म का गुणगान करवाएगा। मैंने संकल्प लिया कि सिनेमा इसके पैसे से देखकर बेधड़क, सच्चा रिव्यू बनाऊंगा और फिल्म का उथलापन सबके सामने लाऊँगा। यही सोचते हुए, हृदय पर पत्थर रखे, शून्य से भी न्यून आशाएँ लेकर मैं थियेटर में प्रविष्ट हुआ।

वैसे खराब फिल्में मुझे बहुत पसंद हैं – आप का सुरूर, मेला और महाराजा को शानदार घटिया फिल्मों की श्रेणी में रखता हूँ। गुंडा और देशद्रोही तो कल्ट क्लासिक हैं ही। ब्रह्मास्त्र की समस्या यह है कि इसे एक खराब फिल्म भी करार नहीं दिया सकता, ऐसी कि जिसे देखकर रोते-रोते ही हंस लिया जाये। बल्कि यह फिल्म ही नहीं है। यह उल्टी है, दस्त है – जो किसी मंदबुद्धि लेखक, एक पैदल डायरेक्टर और एक चमनचू एक्टर को लग गए। यह एक ऐसा जानलेवा कमिटमेंट है, जो निर्माताओं की बरबादी के साथ-साथ जगहँसाई भी करवाएगा।

फिल्म में कोई कहानी नहीं है, उसका बस एक जोनर (genre) है। मात्र इस हट में कि एक भव्य सुपरहीरो फिल्म बनानी है, अनाप-शनाप पैसा उड़ा दिया गया है। कहने को सारा झमेला-फसाद ब्रह्मास्त्र को लेकर है, लेकिन वह महान अस्त्र केवल प्यार के माध्यम से ही काबू किया जा सकता है। और प्यार का सबसे बड़ा रूप है कुर्बानी। प्यार से बड़ा कोई ब्रह्मास्त्र नहीं, ब्रह्मास्त्र की साध तो आशिकों की कहानी है।

ऐसे थोथी पटकथा और ढीले संवाद हैं, मानो जलालुद्दीन मोहम्मद रूमी ने स्वयं लिखे हों। यानि सपने देखे-दिखाये टोल्किन और जॉर्ज मार्टिन के, और परोसा दिया है सूफियापा! हाऊस ऑफ ड्रेगन और रिंग ऑफ पावर दोनों इन दिनों प्रसारित हो रहे हैं । घर बैठे वही देख लो, यह ढाई आखर प्रेम का पढ़ने क्यूँ तशरीफ उठाकर जाओगे?

फिल्म के संवाद रामानन्द सागर के सीरियल अलिफ लैला सरीखे हैं – सस्ती उर्दू, चालू ज़बान। ब्रह्मास्त्र की किस्मत का सिकंदर रणवीर इतना ढीला लगा है मानो पोरस से मार खा कर आया हो। ऊपर से मेकअप और लाइट्स में उसे इतना चमका दिया गया है जैसे पीलियाग्रस्त हो। क्या ये गौभक्षण के बुरे नतीजे हैं? फिल्म में अलिया को लिया है, तो उसे कुछ करना था, इसलिए कर रही है। वैसे आरआरआर में कुछ नहीं किया था, वही बेहतर था। देखा जाये तो आज के जमाने में रियल लाइफ कपल्स का ऑनस्क्रीन रोमांस बहुत ही उचाट हो जाता है। सबको पता है सब कुछ चल रहा है, फिर पर्दे पर कू-कू एकदम बेमानी सी लगती है। मौनी रॉय इस प्रपंच, इस ढोंग की विलेनी है। ये अपने आप में ऐसा विस्मयकारी तथ्य है कि आप फिल्म के अंत तक इससे उबर नहीं पाते। मौनी रॉय क्यूँ? ये कैसी कास्टिंग है? चार सौ करोड़ खर्च कर मिली मौनी रॉय तो चार सौ दो लगाकर सोनू सूद को ही ले लेते!

फिल्म के VFX एफ़ेक्ट्स, जिनके बारे में बहुत हो-हल्ला हो रहा है, वेरी फनी हैं। दरअसल वे फिल्म की सेटिंग और स्केल से मेल नहीं खाते और कुछ ज्यादा ही भीषण साबित हो जाते हैं। ऐसा लगता है मियां-बीबी की रोमांटिक टेलीफिल्म में किसी ने हिरोशिमा-नागासाकी का सीन घुसेड़ दिया हो।

ब्रह्मास्त्र के कई पार्ट बनने हैं, या थे, पर इस दिवालियेपन को देखकर लगता नहीं कि डिस्ट्रिब्यूटर्स हिम्मत जुटा पाएंगे। शमशेरा में लाखों-करोड़ों बुराइयाँ थीं, पर संजय दत्त अपनी ओवरएक्टिंग से जगाये तो रखता था। आप कमसकम कुढ़ते रह सकते थे। ब्रह्मास्त्र देखते हुए मुझे ऐसा आभास हुआ मानो मैं किसी मॉल के भीतर पहली मंज़िल पर खड़ा हूँ और अंदर-बाहर होते अंजान लोगों की भीड़ को देखे जा रहा हूँ। टोटल ‘डिसकनेक्ट’ वाली फीलिंग – इसका हिन्दी अनुवाद क्या होगा, कह नहीं सकता। खिंचाई करने तक का मन नहीं है। बाहर आकर बेचारा वामी भी ठगा-सा महसूस कर रहा था, बोला फिल्म में दम नहीं है, नहीं चलेगी। मैंने पूछा – शुक्रवार की शाम है, ऐसे भी कितने लोग फिल्म देखने आए भी थे? हाल तो बहुत खाली था। 

रणबीर के लिए भी शायद यही उचित है – लोग पैसा देकर घटिया काम देखेंगे तो उससे और ज्यादा चिढ़ने लगेंगे। अभी बेनिफ़िट ऑफ डाउट में शायद कैरियर बच भी जाये। कुलमिलाकर मेरे तीन घंटे बर्बाद अवश्य हुए, पर इस बात का संतोष है कि वामपंथी की फंडिंग पर उर्दूवुड के जनाज़े में शामिल हो कर आया हूँ।

महान लीडर श्री रामाधीर सिंह ने कहा था – हिंदुस्तान में जब तक सनीमा है, लोग chew बनते रहेंगे । लगता है बीफ़ईटर गेंग के प्रतिभाशून्य साहिबज़ादे और शहजादियाँ अपनी उथली, गुरुत्वविहीन प्रस्तुतियों से हिन्दी सनीमा की कब्र खोद कर रहेंगे। ब्रह्मास्त्र और शमशेरा जैसी फिल्में बनती रहीं तो वह शुभ समय दूर नहीं जब उर्दूवुड का नामलेवा तक नहीं बचेगा। तब तक हमें विदेशी और प्रादेशिक सामाग्री से मन बहलाना, अगर ऐसा करना नितांत आवश्यक हो। वैसे आज का आम आदमी अत्यधिक मनोरंजन का शिकार हो रहा है, परिवार, अध्यात्म, एवं धनोपार्जन को अधिक समय दिया जाये तो मानसिक और सांसरिक सफलता अधिक मिल पाएगी। सदैव मनोरंजित रहना मानुष्यिक अस्तित्व का ध्येय नहीं है। 

This review has been republished here with the author’s permission. It was originally published here.

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